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लेखिका और चित्रांकन – सानिका देशपांडे
प्रकाशन- जुगनू
कुछ दिन से बच्चों के साहित्य में अलग-अलग तरह के विषयों पर लिखा जाने लगा है – जैसे की मृत्यु, विकलांगता, अलगाव, थर्ड जेंडर इत्यादि। यह ऐसी स्थितियां हैं जो बहुतेरे बच्चों के अनुभवों में होती हैं। इसलिए यह जरूरी भी है कि वे जिन किताबों को पढ़ते हैं, उन्हें ऐसी वास्तविकताओं के साथ जोड़ा जाना चाहिए।
एक ऐसी ही किताब “क्या तुम हो मेरी दादी?” से मैं हाल ही में परिचित हुई। इसके कवर पृष्ठ और शीर्षक से गुजरते हुए प्रतीत होता कि एक बच्ची अपने दादी को ढूंढ रही है। कवर पृष्ठ पर शीर्षक के साथ बने जानवरों के चित्र मन में सवाल पैदा करते हैं कि क्या यह बच्ची उन जानवरों को दादी कह रही है
इस कहानी की मुख्य पात्र अवनी है। अवनी की दादी नहीं रही। उसे यह बात स्पष्ट रूप से बताई तो नहीं जाती, परन्तु आस पास के घटनाक्रम को देखकर वह अनुमान लगाने की कोशिश करती है और प्रश्न पूछती है। उसके पिता उसे बताते हैं कि उसकी दादी तेरह दिनों के बाद लौटेगी लेकिन उसकी दादी के रूप में नहीं। वह किसी भी रूप में आ सकती हैं मसलन एक पक्षी, एक फूल, एक चींटी या कोई और चीज। इस प्रकार अवनी की दादी को ढूँढने की यात्रा शुरू होती है। दादी की तलाश में वह अपने परिवेश की हर चीज को देखती है, महसूस करती है और उनसे बारे में सोचती है कि – “कौन होगी मेरी दादी?”
हल्के पीले रंग की यह किताब दूर से ही आकर्षित करती है। सानिका देशपांडे ने इस संवेदनशील और जीवंत कहानी को लिखा और चित्रित किया है। ये चित्र वास्तविक रूप से एक परिवार के लोकाचार को चित्रित करते हैं जिसने अपने एक सदस्य के नुकसान का अनुभव किया है। सानिका देशपांडे ने उस स्थिति में एक बच्ची के मन में उठ रहे सवालों, जद्दोजहद और पार्श्व में पसरे दुःख को चित्रों और कहानी के माध्यम से अच्छे से दिखाया है। वाटर कलर का उम्दा तरीके से इस्तेमाल किया गया है। दुःख में डूबे लोग एवं परिवेश के लिए ग्रे कलर का उपयोग बहुत ही प्रभावी है। प्रत्येक चित्र पृष्ठ के मूड को निर्धारित करता है। इस किताब के कहानी और चित्र इतने सजीव हैं कि जैसे कि आप उनसे परिचित हों।
एक जंगल, जंगल में बनी पगडंडियाँ, किसी नदियों के किनारे चलते तनहा रास्ते, कोई मोड़ या नुक्कड़, गाँव के बाहर खड़े ताड़ के पेड़, पसरे हुए बेनूर पहाड़ आदि इन सभी के बारे में सोचने पर लगता है कि इन सबने हमारी कितनी ही पीढ़ियों को तकते अपनी आज तक की जीवन यात्रा तय की है। एक तरह से ये हमारे पूर्वज ही तो हैं। पर आज की भागदौड़ की जिंदगी में हमें तनिक भी ठहरकर इनके बारे में सोचने का समय मिलता है, या हम वह समय देना नहीं चाहते? यह किताब बड़े मार्मिक तरीके से उन पूर्वजों के बारे में सोचने को मजबूर करती है, जो हमारे साथ हैं, पर हमें उनसे अपनापन का बोध नहीं है।
When ‘Jamlo Walks’ with Children
Chandrika Kumar, …yr old, from a village in Okra, Khunti district of Jharkhand, shared her response after listening to ‘Jamlo Walks’…